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जनता को सोनू सूद जैसी सीधी-सच्ची सहायता चाहिए थी, मोदी सरकार के पहेली पैकेज की जरूरत नहीं थी। प्रदीप द्विवेदी. कोरोना संकट ने पूरे देश को अस्त-व्यस्त कर दिया है और अब कोरोना लापरवाही के साइड इफेक्ट भी नजर आने लगे हैं.

जनता को सोनू सूद जैसी सीधी-सच्ची सहायता चाहिए थी, मोदी सरकार के पहेली पैकेज की जरूरत नहीं थी।


प्रदीप द्विवेदी. कोरोना संकट ने पूरे देश को अस्त-व्यस्त कर दिया है और अब कोरोना लापरवाही के साइड इफेक्ट भी नजर आने लगे हैं.

सियासी लाभ के लिए, पहले तो कोरोना संक्रमण के शुरूआती दौर में ही लापरवाही बरती गई और इसके बाद मोदी सरकार की ओर से राहत के तौर-तरीकों ने भी लोगों को निराश ही किया, क्योंकि जनता को सोनू सूद जैसी सीधी-सच्ची सहायता चाहिए थी, मोदी सरकार के पहेली पैकेज जैसी मदद की जरूरत नहीं थी.

हालत यह है कि कोरोनाकाल में राहत के नाम पर केवल आंकड़ों का प्रचार-प्रसार हो रहा है और सारी समस्याएं राज्यों के हवाले कर दी गई हैं, जबकि विभिन्न मुद्दों पर केन्द्र सरकार के स्तर पर पूरे देश में एकजैसे फैसले लिए जाने थे.

याद रहे, कोरोना संकट के कारण कई क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की परेशानियां पैदा होने की आंशका पहले ही व्यक्त की गई थी, बावजूद इसके, मोदी सरकार ने इस संबंध में न ही कोई जरूरी कदम उठाए और न ही आवश्यक फैसले लिए.

सबसे गंभीर मामला किराएदार और मकान-दुकान मालिक के बीच विवाद को लेकर है. इस संबंध में कोई निर्णय नहीं लिया गया, जिसके कारण अब किराएदार और मकान-दुकान मालिक के बीच विवाद बढ़ते जा रहे हैं. इसके कारण मंदी के इस दौर में कई दुकानदार तो अपना काम-धंधा ही फिर से शुरू नहीं कर पा रहे हैं, तो कई बेघर हो गए हैं.

स्कूल और अभिभावकों के बीच उपजे विवाद को लेकर भी सरकार खामोश ही रही, जिसके कारण आज स्कूल प्रबंधक और अभिभावक आमने-सामने खड़े हैं और बच्चों का भविष्य दांव पर लग गया है. यही हाल परीक्षाओं का रहा है, कहीं परीक्षाएं नहीं हुई, तो कहीं जबरन करवा दी गई.

पूरे देश के लोगों को बिजली के बिलों के तगड़े झटके लग रहे हैं. कुछ राज्यों ने बिजली के बिल स्थगित जरूर कर दिए थे, तो कुछ ने छुट भी दी थी, लेकिन अब बिजली के बड़े-बड़े बिल आ रहे हैं. सवाल यह है कि जब मार्च से ही काम-धंधा बंद है, नौकरियां खत्म हो गई है, ऐसे में लोग बिजली के बिल कहां से भरें. बिजली के बिल माफ करने को लेकर भी मोदी सरकार ने कोई दिशा-निर्देश जारी नहीं किए हैं.

हेयर कटिंग सैलून, ब्यूटी पार्लर जैसे कार्य-व्यवसाय में लगे लोगों के सामने तो गंभीर समस्या खड़ी हो गई है, संक्रमण की आशंका के चलते उनके काम पर तो रोक लग ही गई है और सरकार की ओर से भी कोई राहत नहीं मिली है.

वर्षो से ईमानदारी से इंकम टैक्स देनेवालों को भी मोदी सरकार ने कोरोना संकट के दौरान मझधार में छोड़ दिया.

हास्यास्पद बात यह है कि जनधन खाते में प्रतिमाह 500 रुपए डालने का, किसानों के खाते में केश जमा कराने आदि का प्रचार तो खूब किया जा रहा है, लेकिन जनता से डीजल-पेट्रोल के रेट में इससे कई गुना ज्यादा राशि सरकार पहले ही वसूल कर चुकी है. मतलब- एक हाथ से बड़ी लूट और दूसरे हाथ से छोटी राहत.

नए वकील, नौकरी से हटाए गए युवा, छोटे दुकानदार, नया काम-धंधा शुरू करने वाले, लोन लेकर व्यवसाय करनेवाले युवा आदि भारी मानसिक दबाव में हैं.

जिन लोगों की आय रूक गई है और जिन पर किराया, बैंक ईएमआई जैसी जिम्मेदारियां हैं, उनके लिए तो सामाजिक प्रतिष्ठा बचाना बेहद मुश्किल हो गया है. भविष्य में इस तनाव-दबाव के दुष्परिणाम सामने आएंगे.

प्रवासी मजदूरों के साथ कैसा व्यवहार हुआ है, वह तो सबने देखा हैं. आश्यर्चजनक बात यह  है कि मुफ्त राशन देने का हिसाब-किताब तो करोड़ों में है, लेकिन वास्तविक लाभार्थियों की संख्या लाखों में भी ठीक से नहीं है.

राहत देने के मामले में सबसे बड़ा सवाल, लाभ के असंतुलित वितरण का है. जो लोग सरकारी कागजों में पक्के हैं, उन्हें तो एक ही घर में कई-कई लोगों को लाभ मिल गया है और जो राहत के वास्तविक हकदार हैं, वे सहायता के लिए तरस गए हैं.

मोदी सरकार इस कोरोना संकटकाल में भी जरूरतमंदो को सीधा लाभ देने के बजाए चंदा देनेवाले बड़े कारोबारियों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष फायदा पहुंचाने और वोट बैंक बढ़ाने पर ही फोकस है. यही वजह है कि जरूरतमंदों के लिए पहली पैकेज किसी काम का नहीं रहा है...

डीपी सिंह चौहान संपादक खोज जारी है न्यूज चैनल की खास रिपोर्ट...

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